शनिवार, 10 अप्रैल 2010

दंगा और पत्रकार

पिछले दिनों बरेली में दंगा हुआ और शहर में २३ दिनों तक कफ् र्यू लगा रहा। एक पत्रकार की हैसियत से मैंने इस दंगे को काफी करीब से देखा। दंगे के दौरान बहुत कुछ नजरों से गुजरा जो हम पत्रकारों के हिंदू या मुस्लिम खेमे में बंटे होने के जिंदा दस्तावेज हैं और संवेदनहीन होने के सुबूत भी। कुछ घटनाओं को लघु कथा की शक्ल में पेश करने की कोशिश कर रहा हूं।


तुम्हारा नाम क्या है
फोन की घंटी बजने के बाद अखबार के दफ्तर में रिपोर्टर ने फोन उठाया तो उधर से मदद मांगी जा रही थी। "साहब, हमारे इलाके में दंगाई घुस आए हैं, जल्दी से यहां पुलिस भेजें।" रिपोर्टर, "तुम्हारा नाम क्या है?" उधर से जवाब आया, "साहब नाम पूछ कर क्या करोगे? जल्दी से मदद भेजिए।" रिपोर्टर ने फिर कहा कि अगर नाम नहीं बताओगे तो मदद नहीं मिलगी। उसने खीझकर नाम बताया, राजू। "राजू क्या? पूरा नाम बताओ?" उधर से आवाज आई, "साहब, सिर्फ राजू"। रिपोर्टर का अगला सवाल, "अच्छा यह बताओ तुम्हें मुसलमान काटना चाहते हैं या हिंदू? "


ख़ुशी
दो घंटे ढील के बाद शहर में फिर कफ् र्यू लगा दिया गया। एक रिपोर्टर का एसएमएस, "शहर में कफ् र्यू लग चुका है, अब मेरा मन घूमने को हो रहा है।"


मुस्लिम दंगाई
"यार कल रात मेरे घर के आसपास तमाम दंगाई घूम रहे थे। उनके हाथों में तलवार, बल्लम और असलहे थे।"

"लेकिन तुम तो मुस्लिम इलाके में रहते हो। और तुम खुद भी तो मुस्लिम हो!"

"हां यार! वह मुस्लिम दंगाई थे।"


हिसाब
"यार गलती से हमने अपने धर्म वाले का घर जला दिया।"

"कोई बात नहीं हम दूसरे धर्म के दो घर जलाकर हिसाब बराबर कर लेंगे।"

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