जूते की एक घटना बाबर के साथ भी हुई थी। जंग के मैदान में तंबूं गड़े हुए थे। शाम होने की वजह से जंग रुक गई थी। दो सिपाही अपने तंबू के सामने एक-दूसरे पर जूता उछालने का खेल खेल रहे थे। एक सिपाही का फेंका हुआ जूता उधर से गुजर रहे एक आदमी को लग गया। उसने पलटकर देखा, मुस्कुराया और आगे बढ़ गया। उसकी शक्ल देखते ही दोनों सिपाहियों की जान सूख गई। उन्हें पूरी उम्मीद हो गई कि अब सर कलम होगा। दरअसल वह आदमी मुगल शहंशाह बाबर था, जो शाम की नमाज अदा करने बड़े तंबू की तरफ जा रहा था।
कई सदियां गुजर गई हैं और जूता लोकतांत्रिक हो गया है। अब जूता गलती से नहीं बल्कि जानबूझकर आज के शहंशाहों की तरफ उछाले जा रहे हैं। ये लोकतंत्र के लिए उचित नहीं है, कह कर कृपया इसे नजरअंदाज न करें। जो आज के नेता कर रहे हैं, वह भी लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है। जब देश का हर आठवां लोक सभा प्रत्याशी करोड़पति हो और ७७ फीसदी अवाम यानी ८३.५ करोड़ लोगों की हर दिन की कमाई बीस रुपये हो, आधी आबादी साफ पानी और इलाज के लिए तरस रही हो, जब लोगों को इंसाफ मिलना बंद हो जाए तो निःसहाय अवाम ऐसे ही किसी रास्ते को चुनती है।
चिदंबरम, जिंदल, आडवाणी के बाद कल असम में सांसद अनवर हुसैन पर जनता ने जूतों की बौछार कर दी। उन्होंने वादा करके पुल नहीं बनवाया था। अब पब्लिक झूठे वादे सुनने को तैयार नहीं है। ये घटनाएं जाहिर करती हैं कि अब अवाम को नेताओं पर यकीन नहीं है और न उनके लिए मन में कोई इज्जत बची है। इसके लिए पब्लिक नहीं नेता जिम्मेदार हैं। याद करें कि सांसद पर आतंकी हमले की घटना के बारे में सुनने के बाद लोगों की सहज प्रक्रिया थी, कोई नेता नहीं मरा।
जूता प्रतिरोध का प्रतीक बनता जा रहा है। अगर ये नेता नहीं बदले तो ऐसे विरोध जोर पकड़ेंगे। निरीज जनता के पास शायद इससे सहज और कोई तरीका नहीं बचा है। सत्ता के कान तो शहीद भगत सिंह के समय में ही बहरे हो गए थे। लाचार जनता की आवाज इन नेताओं तक जब नहीं पहुंच रही हैं, लेकिन जूता जरूर पहुंच रहा है और अपनी पूरी बात आसानी से रख रहा है। ये दिखता भी है और डराता भी है।
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