शनिवार, 23 मई 2009

'मज़हबी बिल्कुल नहीं थे मंटो'


सआदत हसन मंटो इन दिनों फिर से चर्चा में हैं। भारत-पाक बटवारे पर लिखी उनकी कहानी टोबाटेक सिंह की गिनती विश्व की बेहतरीन कहानियों में होती है। पैन नलिन इस पर आधारित एक फिल्म बनाने जा रही हैं। इस मौके पर पेश है उनकी बेटी से की गई एक बातचीतः

सआदत हसन का जन्म 11 मई, 1912 को अमृतसर के ख़ानदानी बैरिस्टर परिवार में हुआ था.
लेकिन उनकी क्रांतिकारी सोच और अतिसंवेदनशील लेखनी से 'मंटो' के रूप में उन्हें पूरी दुनिया में शोहरत मिली.
पैदाइशी अफसानानिगार मंटो अगर आज जीवित होते तो उनकी उम्र 97 साल होती.
पेश है उनकी बड़ी बेटी निकहत पटेल से हुई बातचीत के अंशः
किस तरह की यादें जुड़ी हैं अब्बा जान मंटो की आपके साथ?
बेहद अच्छी यादें हैं उनकी, हालांकि उनके साथ हमारा बहुत कम वक़्त गुज़रा. लेकिन मुझे याद है, वो बहुत प्यार करने वाले खुशमिजा़ज इंसान थे. वो हमें ही नहीं हमारे रिश्तेदारों के बच्चों को भी लाड़-दुलार किया करते थे.
धुंधली सी याद है मुझे, बावर्चीखाने में खड़े हुए अपनी पसंद की डिश या पकोड़े अक्सर बनाया करते थे। तो इस तरह उनके साथ जो भी वक्त गुजरा ज़हन में आज भी है.
उनकी ऐसी कोई बात जो आपको दिलचस्प लगती हो, जिसे आप भूल नही़ पाती हों?
मैंने उन्हें कभी नमाज़ पढते नहीं देखा था। क्योंकि वह उस मायने में मज़हबी बिल्कुल नहीं थे. लेकिन उनका हर कहानी या मज़मून शुरू करने से पहले सफेह पर 786 लिखना दिलचस्प लगता था.
मंटो साहब की कौन सी कहानियां आपको ज़्यादा अच्छी लगती हैं ?
यूँ तो उनकी सभी कहानियां अच्छी हैं लेकिन खासतौर से 'काली शलवार', 'हादसे का खात्मा' और 'बू' कहानियां अच्छी लगती हैं। 'बू' मेरी पसंदीदा कहानी है.
मंटो का व्यक्तित्व और कहानियाँ दोनों ही विवादों में रहे हैं, लोगों की प्रतिक्रियाओं का आप पर कितना असर हुआ?
देखिए जिस वक़्त कहानी ‘बू’ पर मुकदमा चल रहा था उस वक्त मैं बहुत छोटी थी. रही बात लोगों की प्रतिक्रियाओं का हम पर असर होने की तो मैंने देखा कि उनके विरोधी कम और चाहने वाले ज़्यादा थे. इसलिए विरेधियों की बातों पर कभी गौ़र ही नहीं किया.
विवादों को आपकी अम्मी जान ने किस तरह लिया?
बहुत सहजता से। क्योंकि घर में मामू और फूफियों के अलावा पूरी साहित्यिक बिरादारी उनके साथ थी. इसलिए विरोध से वह कभी परेशान नहीं हुईं.
मंटो साहब के लेखन के बारे में वह क्या सोचती थीं ?
अम्मी बताती थीं कि अब्बाजान अपनी हर कहानी और मजमून सबसे पहले उन्हें ही सुनाया करते थे। और बताते थे कि इस कहानी या मजमून का मक़सद क्या है।
अम्मी से किस तरह का रिश्ता था मंटो साहब का?
होश आने पर जो घर के लोगों से जाना, वह यह कि रिश्तेदारों से उनका रिश्ता मोहब्बत और दोस्ती का था.
बस अम्मी से उनकी झड़प शराबनोशी को लेकर हुआ करती थी. और उस वक्त भी वह अपनी कमज़ोरी और गलतियों को मान लेते थे.
'मनो मिट्टी के नीचे दफन सआदत हसन मंटो आज भी यह सोचता है कि सबसे बड़ा अफसाना निगार वह है या ख़ुदा।' मंटो की इस इबारत में आपको आत्मविश्वास और चुनौती नज़र आती है या ग़ुरूर?
मुझे तो सौ फीसदी आत्मविश्वास और साथ में चुनौती भी नज़र आती है..... गुरूर तो उनमें था ही नहीं .
अगर अब्बा जान मंटो से कोई एक बात कहनी हो, तो वो क्या होगी?
यही कि... ‘काश आपने शराबनोशी न की होती तो....हमें आपके साथ ज़्यादा रहने का मौका मिला होता....’ बस इतना ही।

साभार:
सूफिया शानी बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए

शनिवार, 16 मई 2009

सर्वज्ञानी होने का दंभ

ये पोस्ट इंटर एक्शन ब्लाग से सचिन ने आजाद आवाज़ को मेल की है। सचिन आई नेक्स्ट कानपुर के दौर के साथी हैं और इन दिनों इंदौर में हैं :

ब्लेज बोनपेन (Blase Bonpane) एक अमेरिकी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और इस समय लॉस एजेंलस में पैसिफिका नेटवर्क स्टेशन केपीएफके पर वर्ल्ड फोकस नाम के रेडियो कार्यक्रम का संचालन करते हैं। उन्होंने क्रांति की प्रक्रिया पर यह लेख 1983 में लिखा था। इसमें से कुछ बातें मुझे काफी मज़ेदार लगी, आप अपनी कहें, और यहां पसरा सन्नाटा तोडें।
हम कोई काम करने से पहले यह इंतज़ार नहीं करते कि पहले इस काम में पूर्णता हासिल कर लें, तभी करेंगे। जो लोग पूर्णता या परफेक्शन का इंतज़ार करते रहते हैं, वे बिना कुछ किए सारा जीवन गुज़ार देते हैं और इसी तरह एक दिन मर-खप जाते हैं।
हम सभी के पास सच का थोड़ा-थोड़ा अंश होता है और जब हम समझ जाते हैं कि हम साथ-साथ काम कर सकते हैं तो हम जान लेते हैं कि क्रांति क्या चीज़ है और विभिन्न सामाजिक शक्तियों को साथ लाने की कला क्या है। यह ऐसी कला नहीं होती जिसमें सभी सवालों के जवाब का दावा किया जाता है। बल्कि जो लोग इस तरह का सर्वज्ञानी होने का दंभ भरते हैं, वे खुद ही समस्या होते हैं। जिनके पास पहले से तैयार उत्तर होते हैं, वो भले ही अग्रणी नेता होने का दावा कर लें, लेकिन असल में ऐसे होते नहीं हैं। नेता तो संघर्ष की प्रक्रिया में तैयार होते हैं।
बदलाव की प्रक्रिया में लगे लोग अपनी पूरी सृजनात्मकता के साथ, संस्कृति के साथ, हंसते-गाते और नाचते हुए नेतृत्व का विकास करते हैं। जो हंस नहीं सकते, नाच नहीं सकते, उनके साथ कुछ न कुछ गड़बड़ ज़रूर होती है। ऐसे सुपर-लेफ्टिस्टों ने बार-बार खुद को प्रतिक्रांतिकारी ही साबित किया है।
आपको दुनिया भर में लोगों की सृजनात्मकता को देखना-परखना चाहिए कि वो कैसे बदलाव को संभव बनाते हैं। अगर आप क्रांति कर रहे हैं तो अवाम की संस्कृति पर हमला नहीं करते। आप उनकी संस्कृति के प्रति सम्मान दिखाते हैं। उनकी संस्कृति के साथ जुड़ते हैं और तब आप देखते हैं गीत-संगीत और नृत्य का एक विस्फोट, जो पूरे आंदोलन में रहस्यमयता भर देता है।हर क्रांति में रहस्य का तत्व होता है। ऐसी कोई क्रांति नहीं है जो नाच नहीं सकती। अगर वह नाच नहीं सकती तो वह क्रांति नहीं हो सकती। अगर उसमें संगीत नहीं है तो वह क्रांति नहीं हो सकती। अगर उसमें उल्लास नहीं है तो वह क्रांति नहीं है।
कोई भी बदलाव स्थाई तभी होता है जब वह सामूहिक होता है। और इतिहास खुद को दोहराता नहीं। इतिहास कभी पीछे भी नहीं जाता। यह धारणा क्रांतिकारी की बुनियादी सोच का हिस्सा है। जिंदगी को आप विखंडित प्रवाह के रूप में नहीं देखते। आप रूसी क्रांति की नकल नहीं करते। आप क्यूबा की क्रांति की नकल नहीं करते। आप चीन की क्रांति की नकल नहीं करते।
क्रांति में प्यार करने जैसा उन्माद होता है। आप प्यार से कोई मोटर गाड़ी बना सकते हैं। आप प्यार के दम पर नई राजनीतिक व्यवस्था बना सकते हैं। आप व्यक्तिगत तौर पर ही नहीं, सरकार को भी प्यार का वाहक बना देते हैं। सरकार जो कहती है कि मेडिकल केयर अवाम का हक है, वो असल में प्यार को व्यवस्थित कर रही होती है। जो सरकार कहती है कि शिक्षा हर किसी को मिलनी चाहिए, वो दरअसल प्यार की व्यवस्था बना रही होती है। प्यार महज व्यक्तिगत चीज़ नहीं है, बल्कि इसे सामूहिक भी बनाया जा सकता है। और अपने उच्चतम रूप में इसे अवाम के समान हितों की सामूहिकता में देखा जाएगा।