शनिवार, 14 अगस्त 2010

अपने आइडियाज पर स्वयं विश्वास रखें

यह पोस्ट हमें सचिन गुप्ता ने भेजी हैः


ली लेबो फ्रेगरेंस कंपनी के पिनोट तथा एडी को अपना बिजनेस आरंभ करना था और वह भी स्वयं की कुछ शर्तों पर :

वे ऐसा ब्रांड बनाना चाहते थे जिसकी सभी रिटेल शॉप्स एक तरह से लैब का काम करे यानी ग्राहक आए और अपनी पसंद की सुगंध बनाए और ले जाए। उनका उद्देश्य था स्टॉक नहीं रखना।

वे बहुत ज्यादा मार्केटिंग पर पैसा खर्च करने की स्थिति में नहीं थे।

वे अरमानी और इसके जैसे बड़े ब्रांड्स को टक्कर देना चाहते थे, परंतु पैसा बिलकुल भी नहीं था

वे अच्छी सुगंध बनाना जानते थे और इसी में नई कंपनी खोलना चाहते थे। कैसे उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ा और कैसे स्वयं वे आगे बढ़े।

कैसे प्रयत्न किए
पिनोट तथा एडी ने कई कंपनियों से फायनेंस की बात की, परंतु सभी ने मना कर दिया। पिनोट ने उनसे कहा कि वे आरंभिक रूप से अपने पहले स्टोर से 4 बोतल फ्रेंगरेंस बेचेंगे वह भी प्रति बॉटल 200 डॉलर। यह सुनकर उनकी हँसी भी उड़ाई गई।

कहीं से भी फायनेंस न होने की स्थिति में पिनोट ने अपना मकान बेच दिया तथा एडी के साथ एक बैडरूम के फ्लैट में रहने चले आए। दोनों ने मिलकर 1-1 लाख डॉलर जुटाए तथा चार अन्य दोस्तों ने इन दोनों को 30 हजार डॉलर की सहायता की जिसके लिए एक मित्र ने तो अपनी कार ही बेच डाली।



ऐसे बढ़े आगे
दोनों को यह समझ में आ गया था कि उन्हें जो भी करना है अपने बल पर ही करना है और सस्ते में करना है।

पहला स्टोर मैनहट्टन के पास आरंभ करना था, पर इसे बनाने के लिए आर्किटेक्ट ने 2 लाख डॉलर का बजट दिया। इतना पैसा सिर्फ एक स्टोर पर खर्च नहीं किया जा सकता था। लिहाजा दोनों ने एक स्थानीय इंजिनियर की सहायता ली और लाइसेंस लेने के बाद दोनों ने स्वयं ही स्टोर का निर्माण कर डाला।

एक फार्मा स्टोर की तरह उन्होंने फ्रेगरेंस शॉप आरंभ की और कुछ ही समय में यह शॉप चल पड़ी, क्योंकि अपनी क्रिएटिविटी के बल पर इन्होंने लोगों को इस बात के लिए मना लिया कि आप अपनी पसंद का और अपने नाम का फ्रेगरेंस बनाएँ न कि और किसी ब्रांड का।

कुछ ही समय में कंपनी ने चार स्टोर आरंभ कर दिए और सभी का निर्माण इन्होंने ही किया। व्यापार बढ़ने लगा और किसी भी प्रकार की उधारी नहीं होने से पहले दिन से ही कंपनी लाभ में रही। कंपनी ने किसी भी तरह का कॉर्पोरेट ऑफिस नहीं बनाया बल्कि सभी कर्मचारी लैपटॉप के माध्यम से संपर्क में रहते हैं। आज ली लिबो लगभग 4.5 मिलियन डॉलर का ब्रांड बन चुका है।

कंपनी ने जापान में जब अपना स्टोर आरंभ किया तब आरंभिक रूप से इन्हें काफी परेशानी आई, क्योंकि जापानी लोग ज्यादा परफ्यूम के शौकीन नहीं होते। ली लिबो ने जब जापानियों को समझाया कि परफ्यूम बनाना किसी कला से कम नहीं है तब जाकर जापानी लोग भी ली लिबो के दीवाने हो गए।

कंपनी की सफलता के सूत्र
क्रिएटिविटी और इनोवेशन के बल पर ही अब आप कस्टमर का दिल जीत सकते हैं।

अपने आइडियाज पर स्वयं विश्वास रखें

बिना कष्टों के सफलता नहीं मिलती

रानी का डंडा

यह पोस्ट हमें डॉ. एसई हुदा ने भेजी हैः


बचपन से आज तक डंडे के अनेकों प्रकार सुने। 'अम्मा का डंडा', 'अब्बा का
डंडा', स्कूल गये तो 'मास्टर साहब का डंडा'। बड़े हुए तो पता चला इन सबसे
ऊपर 'पुलिस का डंडा'। पुलिस का डंडा इतिहास का अब तक सबसे 'महान डंडा'
समझा जाता था। और इस पुलिसिये डंडे को अपने उच्च व्यवहार के लिये महानतम
कहलाने में फख्र भी महसूस होता था। हाँ, यह ज़रूर है कि थोड़े दिनों इस
पुलिसिया डंडे के वर्चस्व को चुनौती देने वाला डंडा पैदा ज़रूर हुआ, जो
अपने मालिक के साथ इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया। भद्रजनों! इस
डंडे को 'गाँधी का डंडा' कहते थे। जब तक गाँधी का डंडा रहा तब तक डंडा
अपनी वास्तविक कार्यशैली ही भूल गया था। अहिंसा का पाठ पढ़ाने लगा था। यह
तो वही मिसाल हुई कि शेर से कहो मियाँ घास खा लो। हाँ, अभी कुछ दिनों से
ज़रूर एक डंडे ने लोगों को बिलखने पर मजबूर कर दिया है। हालत यह है कि घर
की ग्रहणियाँ भी सड़क पर उतरकर इस डंडे का विरोध कर रही हैं। वह है
मँहगाई रूपी 'सरकारी डंडा'। मित्रो! अभी हम लोग डंडे के प्रकार ही जान
पाये और कुछ हद तक कार्यशैली भी। अभी पिक्चर खत्म नहीं हुई है भाई। यदि
गाँधी जी के डंडे को हटाकर बात करें तो सम्भवतः सभी डंडे कुशल कारीगर के
रूप में अपने काम को अंजाम दे रहे हैं। गर्ज़ यह कि सभी लोग डंडे से किसी
न किसी रूप में परेशान हैं और इससे किसी भी सूरत में निजात पाने का
रास्ता ढूँढ रहे हैं। डंडे की व्याख्या करने के बाद मैंने सोचा कि मूल
बात पर आऊँगा। परन्तु विचार कर गया कि बिल्कुल साफ-साफ लिखूँगा और
देखूँगा कि कितना ईमानदाराना रवैया अख्तियार कर पाता हूँ लिखने के लिये।
दोस्तो! हैरत की बात यह है कि आज़ादी के दौर में जिस डंडे को देखकर लोगो
की कंपकपी छूट जाती थी, उसी डंडे को पिछले कई दिनों से एक देश से दूसरे
देश, एक शहर से दूसरे शहर सरकारी निगरानी में हाईटैक प्रणाली द्वारा
घुमाया जा रहा है। और लगभग सत्तर देशों से ज्यादा देशों का सफर तय करके
यह डंडा बाघा बॉर्डर लाँघकर हमारे देश में भी आ पहुँचा है। जिसको पकड़ने
के लिये हर ख़ास और आम शहरी परेशान है। आप जानना चाहेंगे इस डंडे के बारे
में। कोई साधारण डंडा नहीं है मियाँ, इसे रानी का डंडा कहते हैं। शाब्दिक
अर्थों में देखा जाए तो क्वींस वैटन का मतलब भी रानी का डंडा ही हुआ। तो
हूज़ूर हम बात कर रहे हैं कि क्वींस वैटन यानि रानी के डंडे की। विगत
दिनों यह रानी का डंडा हमारे शहर बरेली में भी था। स्पोर्ट्स स्टेडियम
बरेली में ज़िला प्रशासन द्वारा भव्य आयोजन किया गया था। इस डंडे की
इज्जत-अफज़ाई के लिये स्टेडियम के बाहर राजमा-चावल बेच रहे सुखीलाल बोल
पड़े 'हमऊ न मिलिहै का ई डंडा, हमऊ भी लेके भागन चाहीं'। अब बेचारे ग़रीब
को कौन बताये कि जिस गाँधी के डंडे ने इस रानी के डंडे को देश से हंकाला
था और उस सुखीलाल जैसे हज़ारों लाखों लोगों ने गाँधी के डंडे को मज़बूती
से थामकर रानी के इसी डंडे को ज़मीदोज़ कर बैण्ड बजायी थी। यह वो ही रानी
का डंडा है भाई। ख़ैर! मामला क्वींस वैटन का है, इसलिये स्टेटस सिम्बल बन
गया था बरेलीवालों के लिये इस डंडे को पकड़ना। हर कोई आमादा था इस 'डंडा
पकड़' अभियान में अपना नाम दर्ज कराने को। बेचारा प्रशासन घोर संकट में
था कि क्या किया जाए। प्रशासन का पशोपेश में पड़ना लाज़िमी था क्योंकि
इंतिहा तो तब हो गयी कि इस 'डंडा पकड़ अभियान' के लिये लखनऊ से दबाव आने
लगा था कि अमुख व्यक्ति हमारे क़रीबी हैं कृप्या इनको भी डंडा पकड़वा
दीजिये। इनको भी दौड़ना है। और उन सभी को दौड़ना है कि जिनका दौड़ से
दूर-दूर तक कोई नाता, कोई वास्ता नहीं है। पूरा शहर उमड़ पड़ा था बस। हर
पार्टी के जनप्रतिनिधि विधायक, साँसद, मंत्री पूर्व मंत्री, बड़े नेता,
छुटभैये नेता यानि सारे माननीये मौजूद थे। यदि कुछ एक को छोड़ दें तो कोई
यह भी न बता पाए कि राष्ट्रमण्डल खेल क्या होते हैं और यह कहाँ हो रहे
हैं। और बेचारे मीडियाकर्मियों का तो सबसे बुरा हाल था। अपनी-अपनी नौकरी
बचाने को सिर-पैर एक किये हुए थे। चूँकि डंडा बरेली में था और स्टेटस
सिम्बल बन ही चुका था। तो सबको पकड़ना ही था। इन माननीयों से कोई सुखलाल
यह पूछे कि साल में अगर बारह बार भी सारे माननीये स्टेडियम में ऐसे ही
जुट जाएं तो इंडोर बैडमिंटन हॉल को कबूतर गंदा न करें। कोच अपनी
ज़िम्मेदारी महसूस करें। स्वीमिंग पूल तालाब तालाब न बनें। खिलाड़ी हाथ
में मोबाइल लेकर न दौड़ें। शाम सात बजे के बात मैदान के कोने में ढक्कन न
खुले। खिलाड़ी अन्धेरा होने का इंतिज़ार न करें। खेल का मक़सद सिर्फ
रेलवे की नौकरी न हो। स्टेडियम के पीछे की घास साफ हो जाए, जहाँ अँधेरे
में महिला खिलाड़ी अपने साथियों के साथ भी गुज़रना पसंद नहीं करती। फर्जी
सियासत बन्द हो जाए। कोचों में एक-दूसरे को नीचा दिखाने की होड़ बन्द हो
जाए। कुल मिलाकर सारे ख़लीफा बाहर हो जाएं और खेल सिर्फ खेल हो। परन्तु
ऐसा सोचना माननीयों की शान के खिलाफ है। उनको तो आज यह तय करना था कि
कौन-से कुर्ते में 'विलायती लट्ठ' अच्छा लगेगा। इसी बीच मुलाक़ात हो जाती
है एक मशहूर और माअरूफ हस्ती से। काश हम भी सफेद पैन्ट-शर्ट पहनकर सफेद
बाल रखते और झटके से बाल झटककर कहते हाय मेरी बरेली को क्या हो गया। और
कोई दोस्त अपना रूमाल निकालकर आँसू पोछता और कल सारे अख़बार की सुर्खियाँ
बन जाते। ख़ैर इनता अच्छा नसीब हमारा कहाँ है। बड़े-बड़े जादूगरों और
बहरूपियों को देखकर 'हरिशंकर परिसाई' की 'निठल्ले की डायरी' याद आ गयी।
कबीरा इस संसार में भांति-भांति के लोग, कुछ तो............। इस बीच एक
जनप्रतिनिधि से मुलाकात हो गयी। सत्ताधारी पार्टी के प्रभावशाली नेता
हैं, उनके लिये इससे अच्छा मौक़ा और कहाँ मिलता। लगे सबसे हाथ जोड़ने और
ख़ैरियत पूछने। एक मीडिया बन्धु पूँछ बैठे भाई साहब आप यहाँ कैसे। क्या
आप भी दौड़ेंगे। नेता जी बोले हमें तो साथ के लोगों ने बताया कि स्टेडियम
में कोई खेल चल रहा है भागने का और किसी ने कहा पार्टी का कार्यक्रम लगा
है। लो हम भी आ गये। चलो इसी बहाने मुलाकात भी हो गयी सभी से। इसी बीच
कुछ प्रशासनिक अधिकारियों से भी गु्फ्तगु हुई। ऐसा लग रहा था कि मतपत्र
की गिनती का काम चल रहा था। माथे पर इतने बल और चेहरे पर इतनी टेंशन तो
कभी बरेली में लगे कर्फ्यू में भी नहीं दिखायी दी थी। बस, यहाँ से किसी
तरह से यह डंडा निकल जाए ख़ैरियत के साथ। इसी क़वायद में पिछले एक हफ्ते
से लगे है स्टेडियम में पसीना बहाने में। आला अधिकारी से लेकर जूनियर
अधिकारी तक सभी सकुशल इस डंडे को ख़ैरियत के साथ बाहर निकालने में जी-जान
एक किये हुए हैँ। बातें तो मैंने ख़ूब कर लीं बड़ी-बड़ी। लेकिन यह नहीं
समझ पाया कि मैं क्यों इतना व्याकुल था इस डंडे को पकड़ने के लिये। शायद
मानसिक रूप से तैयार होकर भी गया था और जानता भी था डंडे का इतिहास। फिर
भी इतनी उत्सुक्ता कि बस......एक बार हाथ में आ जाए। पता नही क्यों। शायद
कई बरसों से दूसरे के डंडे और झंडे की जय-जयकार करना हमारा शगल हो गया
है।
शाम साढ़े बजे बच्चों द्वारा ग्राउंड के किनारे लगी ख़ूबसूरत झंडियों को
उखड़ते देख सोच रहा था कि 'हमारा डंडा' यानि 'गाँधी का डंडा' यानि 'गाँधी
वैटन' कब लेंगे इतनी बेक़रारी से हाथ में और कब पूरी दुनिया 'गाँधी वैटन'
की जय-जयकार करेगी। जिसने अपनी ताक़त का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया था।

बिना कष्टों के सफलता नहीं मिलती



ली लेबो फ्रेगरेंस कंपनी के पिनोट तथा एडी को अपना बिजनेस आरंभ करना था और वह भी स्वयं की कुछ शर्तों पर :

वे ऐसा ब्रांड बनाना चाहते थे जिसकी सभी रिटेल शॉप्स एक तरह से लैब का काम करे यानी ग्राहक आए और अपनी पसंद की सुगंध बनाए और ले जाए। उनका उद्देश्य था स्टॉक नहीं रखना।

वे बहुत ज्यादा मार्केटिंग पर पैसा खर्च करने की स्थिति में नहीं थे।

वे अरमानी और इसके जैसे बड़े ब्रांड्स को टक्कर देना चाहते थे, परंतु पैसा बिलकुल भी नहीं था

वे अच्छी सुगंध बनाना जानते थे और इसी में नई कंपनी खोलना चाहते थे। कैसे उन्हें दिक्कतों का सामना करना पड़ा और कैसे स्वयं वे आगे बढ़े।

कैसे प्रयत्न किए
पिनोट तथा एडी ने कई कंपनियों से फायनेंस की बात की, परंतु सभी ने मना कर दिया। पिनोट ने उनसे कहा कि वे आरंभिक रूप से अपने पहले स्टोर से 4 बोतल फ्रेंगरेंस बेचेंगे वह भी प्रति बॉटल 200 डॉलर। यह सुनकर उनकी हँसी भी उड़ाई गई।

कहीं से भी फायनेंस होने की स्थिति में पिनोट ने अपना मकान बेच दिया तथा एडी के साथ एक बैडरूम के फ्लैट में रहने चले आए। दोनों ने मिलकर 1-1 लाख डॉलर जुटाए तथा चार अन्य दोस्तों ने इन दोनों को 30 हजार डॉलर की सहायता की जिसके लिए एक मित्र ने तो अपनी कार ही बेच डाली।




ऐसे बढ़े आगे
दोनों को यह समझ में गया था कि उन्हें जो भी करना है अपने बल पर ही करना है और सस्ते में करना है।

पहला स्टोर मैनहट्टन के पास आरंभ करना था, पर इसे बनाने के लिए आर्किटेक्ट ने 2 लाख डॉलर का बजट दिया। इतना पैसा सिर्फ एक स्टोर पर खर्च नहीं किया जा सकता था। लिहाजा दोनों ने एक स्थानीय इंजिनियर की सहायता ली और लाइसेंस लेने के बाद दोनों ने स्वयं ही स्टोर का निर्माण कर डाला।

एक फार्मा स्टोर की तरह उन्होंने फ्रेगरेंस शॉप आरंभ की और कुछ ही समय में यह शॉप चल पड़ी, क्योंकि अपनी क्रिएटिविटी के बल पर इन्होंने लोगों को इस बात के लिए मना लिया कि आप अपनी पसंद का और अपने नाम का फ्रेगरेंस बनाएँ कि और किसी ब्रांड का।

कुछ ही समय में कंपनी ने चार स्टोर आरंभ कर दिए और सभी का निर्माण इन्होंने ही किया। व्यापार बढ़ने लगा और किसी भी प्रकार की उधारी नहीं होने से पहले दिन से ही कंपनी लाभ में रही। कंपनी ने किसी भी तरह का कॉर्पोरेट ऑफिस नहीं बनाया बल्कि सभी कर्मचारी लैपटॉप के माध्यम से संपर्क में रहते हैं। आज ली लिबो लगभग 4.5 मिलियन डॉलर का ब्रांड बन चुका है।

कंपनी ने जापान में जब अपना स्टोर आरंभ किया तब आरंभिक रूप से इन्हें काफी परेशानी आई, क्योंकि जापानी लोग ज्यादा परफ्यूम के शौकीन नहीं होते। ली लिबो ने जब जापानियों को समझाया कि परफ्यूम बनाना किसी कला से कम नहीं है तब जाकर जापानी लोग भी ली लिबो के दीवाने हो गए।

कंपनी की सफलता के सूत्र
क्रिएटिविटी और इनोवेशन के बल पर ही अब आप कस्टमर का दिल जीत सकते हैं।

अपने आइडियाज पर स्वयं विश्वास रखें

बिना कष्टों के सफलता नहीं मिलती

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

फज्र की नमाज पर महबूब चचा की चाय


यह पोस्ट हमें डॉ. एसई हुदा ने भेजी है

बरेली में पुराने शहर की तंग गलियों के बीच बसा मोहल्ला रोहिली टोला। रूहेला नवाबों के
नाम पर रखा गया नाम। जिसकी शान बढ़ाता हुआ बीचो-बीच बना पुराना हवेली नुमा मकान 'बब्बन
साहब का फाटक' जो इस मोहल्ले की शान हुआ करता था। नवाबों की नवाबियत की तरह
जिसकी भी दीवारें अब दरकने लगी हैं और रही-सही कसर पूरी कर दी कुछ भू-माफियाओं
ने, जिनकी पैनी निगाहें इस हवेली नुमा मकान की सैकड़ों वर्ष पुरानी लकड़ी से लेकर
फाटक के लोहे के गेट तक पर टिकी हैं। नये पुराने इस दौर के बीच की कड़ी हैं महबूब चचा।
पुरानी ज़मीन जायदाद के साथ-साथ सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान भी चलाते हैं। अपने दौर
के चिकन-चंगेजी से लेकर आज के दौर के चाऊमीन तक के किस्से हैं उनके पास। चचा के
पास बैठना आसान नहीं है।

मोहल्ले के हर एक बुज़ुर्ग और बच्चों को तालीम का लम्बा पाठ
पढ़ाते हैं और सर-सय्यद के क़िस्से तो ऐसे सुनाते हैं जैसे ए०एम०यू० इन्होंने खड़े होकर
बनवाई हो। मोहल्ले के ज्यादातर लोगों के बच्चे ज़री का काम करते हैं और कुछ एक मकान धोबियों के भी
हैं मोहल्ले में। चचा का कहना है कि सालो तुमसे अच्छे तो धोबी हैं, कम से कम साफ कपड़े तो
पहनाते हैं प्रेस करते हुए, तुम लोग तो न क़ल्ब से साफ हो और न ही दिमाग़ से। पढ़ाई-लिखाई
तो तुम लोगों से होने से रही। कम से कम साफ-सुधरी बातें ही कर लिया करो। अबे- डॉक्टर,
मास्टर न बनाओ न सही, कम से कम स्कूल तो भेजो बच्चों को। साफ-दिल चचा की
साफ-गोई को हर कोई जानता है।

चचा कहते हैं - अबे अगर मर जाऊँ तो जनाज़े में साफ-सुधरे
कपड़े पहनकर आना। और सुनो पहले धोबी मेरा जनाज़ा उठाएंगे। और हाँ. जनाज़े के पीछे
साफ-साफ क़लमा पढ़ना। कहीं बातें मत करने लग जाना कि तीजे में कोरमा बनेगा या बिरयानी
पर हाथ साफ होगा। धोबियों में भी बड़ी मक़बूलियत है चचा की। साठ साल तक शादी नहीं की
चचा ने। मोहल्ले के कुछ हमउम्र लोगों ने फैसला किया कि चचा की शादी करा दी जाए।
पहुँच गये।

सब इशां (रात की नमाज़) के बाद चचा के घर फरियाद लेकर। चचा नमाज़ियों को देखते
ही बोले - आ गये शैतान फिर बरगलाने। अबे, लीचड़ो-ज़लीलो तुम्हीं लोगों की वजह से
नहीं जाता हूँ मसजिद में नमाज़ पढ़ने। ये भी तो गवारा नहीं है तुम लोगों को। मेरे पीछे
कहते हो चचा की कंट्रोल की दुकान हिन्दु मोहल्ले में है। चचा जागरण में जाते हैं तिलक
लगवाते हैं। लाला बनारसी चचा के जिगरी दोस्त हैं। होली की गुजियेँ खाते हैं। और पता नहीं
क्या-क्या शिर्क करते हैं। तौबा-तौबा, अबे सालो सब जानता हूँ। मेरे पीछे में घर की रखवाली के
बहाने आते हो। शाहिद (चचा का नौकर) से चाबी लेकर ख़ूब मज़े ले-लेकर खूब गुजियें खाते हो।
और कम्बख्तो पानी भी मेरे फ्रिज का पीते हो। अब जब चचा का फ्रिज है तो क्या
ज़रूरत मोहल्ले में दूसर फ्रिज की। चचा बोले.......कम्बख्तो क्या काम है। बताओ जल्दी.....चंदे
के लिये आये होगे। मसजिद की पानी की टंकी या लाइट ख़राब हो गयी होगी। या लाउडस्पीकर का
मुँह बन्दरों ने फिर मोड़ दिया होगा हिन्दु मोहल्ले की तरफ। अबे इतने चंदे से तो मोहल्ले के
दो-चार लौंडे - वकील/डॉक्टर बन जाते। बरसों से चन्दा कर रहे हैं मसजिद की लाइट
भी ठीक नहीं करा पाए। बिल दोगे नहीं, लाइट कट गयी तो सरकार ज्यादती कर रही है
मुसलमानों पर। मर्ज़ी न चली तो इस्लाम ख़तरे में। सालो तुम लोगों ने तो नास
मार रखा है।

मर जाऊँगा तो सारी जायदाद घऱ के पीछे सुनार हिन्दुओं को देकर जाऊँगा, जो कम से
कम एक प्याली चाय तो पूँछ लेते हैं। मसजिद की चंदा कमेटी के हेड मिर्ज़ा जी ने डरते
हुए बड़ी दबी ज़बान में कहा - वो, महबूब भाई ऐसा है कि हम सब चाहते हैं कि आपकी शादी हो जाए
तो अच्छा रहेगा। और आख़िर कब तक ऐसे ज़िन्दगी कटेगी अकेले। एक न एक दिन अल्लाह को
मुँह दिखाना ही है। चचा तपाक से बोले....क्यूँ बे.... क्या अल्लाह कुँवारों का मुँह
नहीं देखता है। नहीं......नहीं.......हमारा मतलब यह नहीं है मिर्ज़ा जी ने कहा। हम तो
चाहते हैं कि चच्ची आ जाएँ। चचा ने अपने ढीले कुरते की आसतीनें ऊपर चढ़ाईं जो कुरता तहमद
के ऊपर लगभग घुटनों तक नीचे आ रहा था। और बोले.......अबे सालो....भाभी को चच्ची बोलते
हो। मैं जानता हूँ....मेरे पीछे में कभी नीबू के बहाने.......कभी फ्रिज की
ठन्डे पानी के बहाने.......कभी दूध के बहाने आकर आँखें सेंकोगे। अब तक मोहल्ले की बच्चों की
गेंदे ही आती थीं मेरे आँगन में। लगता है अब तुम लोगों ने भी क्रिकेट की टीम बना ली है,
जिसका निशाना मेरा घर होगा और हर शॉट मेरे आँगन में ही आएगा। सालो मुझसे तो फटती है...पर
शादी करा दोगे तो सोचते हो....चच्ची...चच्ची कहकर ख़ूब घुस-घुसकर बैठेंगे चच्ची के
पास।

जब इण्डिया-पाकिस्तान का मैच होगा तो जाड़ों में लाइट बन्द करके टीवी चलाओगे और
एक ही लिहाफ में पूरा मोहल्ला बैठ जाएगा। चाय चचा की पीओ और मज़े चच्ची से लो। अबे सब
जानता हूँ तुम बुड्ढों की ख़ुराफात। ख़बू जानता हूँ क्या होता है नाइट मैच
देखने के बहाने। पूरे साल इन्तिज़ार करते हो नाइट मैचों का। तुम्हें मतलब नहीं कौन जीते। बस रात के
मैच हों और सब एक जगह मैच देखें एक लिहाफ में। और रमज़ानों में मैच पड़ जाएं तो सोने पे
सुहागा। सहरी भी चचा की। सब जानता हूँ क्या-क्या करते हो मैच देखने के बहाने। चचा के बेबाक़
बयानों से मानो आफत-सी तारी हो गयी हो। सबके चेहरे उतर गये। आख़िर कौन मनाये चच्चा को
शादी के लिये। कुछ पलों के लिये मानो सन्नाटा-सा छा गया। रात के साढ़े नौ हो चले
थे। चचा ने चुप्पी तोड़ी। बोले....अमाँ मियाँ....जाओ अपने-अपने घरों। बड़े काज़ी बनते
हो....देखो लौंडे आ गये होंगे अपने-अपने कामों से। हिसाब लगाओ...किसको कितनी दिहाड़ी मिली
है आज।

और जो छोटा लौंडा स्कूल जाता है न......उसको भी भेज देना कल से काम पर। कुछ और
जुगाड़ हो जाएगी तुम्हारे हुक्के-पानी की। कम्बख्त चले हैं चचा की शादी कराने।
अपना-सा मुँह लिये सब चचा के घऱ से निकले और चचा पीछे से बड़बड़ा रहे थे। कुछ सेकेन्ड
के फासले पर एक लम्बी और कड़क आवाज़ ने सन्नाटा तोड़ा......अबे लईक......सुबह फज्र की नमाज़
में उठा दीजो। नमाज़ पढ़ने के लिये नहीं.....तुम लोगों की चाय का भी तो इंतिज़ाम करना
होता है रोज़। चचा ने हौले से मुस्कुराकर कहा..........

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

दंगा और पत्रकार

पिछले दिनों बरेली में दंगा हुआ और शहर में २३ दिनों तक कफ् र्यू लगा रहा। एक पत्रकार की हैसियत से मैंने इस दंगे को काफी करीब से देखा। दंगे के दौरान बहुत कुछ नजरों से गुजरा जो हम पत्रकारों के हिंदू या मुस्लिम खेमे में बंटे होने के जिंदा दस्तावेज हैं और संवेदनहीन होने के सुबूत भी। कुछ घटनाओं को लघु कथा की शक्ल में पेश करने की कोशिश कर रहा हूं।


तुम्हारा नाम क्या है
फोन की घंटी बजने के बाद अखबार के दफ्तर में रिपोर्टर ने फोन उठाया तो उधर से मदद मांगी जा रही थी। "साहब, हमारे इलाके में दंगाई घुस आए हैं, जल्दी से यहां पुलिस भेजें।" रिपोर्टर, "तुम्हारा नाम क्या है?" उधर से जवाब आया, "साहब नाम पूछ कर क्या करोगे? जल्दी से मदद भेजिए।" रिपोर्टर ने फिर कहा कि अगर नाम नहीं बताओगे तो मदद नहीं मिलगी। उसने खीझकर नाम बताया, राजू। "राजू क्या? पूरा नाम बताओ?" उधर से आवाज आई, "साहब, सिर्फ राजू"। रिपोर्टर का अगला सवाल, "अच्छा यह बताओ तुम्हें मुसलमान काटना चाहते हैं या हिंदू? "


ख़ुशी
दो घंटे ढील के बाद शहर में फिर कफ् र्यू लगा दिया गया। एक रिपोर्टर का एसएमएस, "शहर में कफ् र्यू लग चुका है, अब मेरा मन घूमने को हो रहा है।"


मुस्लिम दंगाई
"यार कल रात मेरे घर के आसपास तमाम दंगाई घूम रहे थे। उनके हाथों में तलवार, बल्लम और असलहे थे।"

"लेकिन तुम तो मुस्लिम इलाके में रहते हो। और तुम खुद भी तो मुस्लिम हो!"

"हां यार! वह मुस्लिम दंगाई थे।"


हिसाब
"यार गलती से हमने अपने धर्म वाले का घर जला दिया।"

"कोई बात नहीं हम दूसरे धर्म के दो घर जलाकर हिसाब बराबर कर लेंगे।"