बुधवार, 5 दिसंबर 2012

आज मेरी गली में एक मदारी बंदर का खेल दिखाने आया था.... शायद इसे मैंने 10-15 साल बाद देखा है.. या कहें मनमोहन सिंह के उदारीकरण की बयार बहने के बाद पहली बार देखा। खेल खत्म हुआ तो बंदर ने सबके आगे झोली फैला दी.. किसी ने एक रुपये दिए.. किसी ने दो रुपये.. तमाम लोग तो पैसे का खेल शुरू होने से पहले ही खिसक लिए। बमुश्किल 10-15 रुपये ही जमा हो पाए... एक वक्त था कि वह दिन भर में दस रुपये कमा लेता था और उसका परिवार इसमें पल जाता था.. लेकिन मनमोहन सिंह की महंगाई में अब ऐसा मुमकिन नहीं.... यही वजह है कि इस तरह के मनोरंज के तमाम साधन खत्म होते जा रहे हैं.. आपाधापी भरी जिंदगी में किसी को इसका एहसास भी नहीं है कि उसकी जिंदगी के कैनवस से कौन-कौन से रंग गायब हो गए अचानक..

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