गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

जीये जाने का दस्तूर है


शायद दो साल हो रहे हैं, एक हिंदी कहानी आई थी, सब्जी। अमर उजाला के एक वरिष्ठ पत्रकार ने उसे लिखा था। उसे कोई पुरस्कार भी मिला था। कहानी के लेखक और पुरस्कार का नाम तो याद नहीं, लेकिन कहानी दिलचस्प और आज की जिदंगी को जाहिर करने वाली थी।
कहानी में कहा गया था कि एक पत्रकार है, जो बहुत व्यस्त रहता है। यहां तक कि उसके पास अपनी बीवी के पास भी वक्त नहीं है। वह दोनों जब कभी एक साथ सब्जी खरीदने जाते हैं, तभी उनके पास बात करने को वक्त होता है। बात करने और पति का साथ लंबा चले, इसलिए पत्नी काफी ज्यादा और देर तक सब्जी खरीदती रहती है।
ये तो जिंदगी का एक पहलू है, लेकिन एक दूसरा पहलू भी है। याद करें आप खुद से कब रूबरू हुए थे। गौर करें तो हममें से ज्यादातर लोगों को खुद से मिले हुए लंबा अरसा गुजर गया है। जिंदग भी जीते चले जाने का दस्तूर हो गई है! जीना भी एक आदत है! जैसे खाना खाना एक आदत है!
मीडिया, मेडिकल और मैनेजमेंट से जुड़े लोग खुद फरामोशी के शिकार ज्यादा हैं। उनसे बात करें तो पता चलता है कि वह अपने आप से कितना दूर जा चुके हैं। उन्हें नहीं पता कि उन्हें क्या खाना पसंद है! एक उम्दा नींद लिए जमाना गुजर गया है। ऐसा कोई दिन गुजरे भी अरसा हो गया है, जब उन्होंने आहिस्ता-आहिस्ता सारे काम किए हों, गुनगुनाते हुए। उन्हें याद नहीं कि जाने भी दो यारो जैसी फिल्म उन्होंने कब इत्मीनान से देखी है। मनपसंद किताब पढ़े हुए काफी वक्त हो चला है। उगता सूरज महीनों से नहीं देखा। चिड़ियों की चहचहाहट कब सुनी थी याद नहीं। तितली का उड़ना भी देखे हुए काफी समय निकल गया। किसी करीबी दोस्त से घंटों बैठ कर गपियाये हुए भी काफी दिन हो गए। बचपन का गांव और गलियों को देखना तो दूर उनके बारे में सोचने की भी फुरसत नहीं। बस जागने से सोने तक काम है। भागना है और बाकी वक्त में अजब सी उलझन है। फ्यूचर की फिक्र। कौन से असाइनमेंट अधूरे हैं और कौन से अपाइंटमेंट पूरे करने हैं। जिंदगी इसी में गुजरी जा रही है।
जिंदगी बस जीते चले जाने का नाम हो चली है।
चांद तारे छूने की चाहत में एक पूरी पीढ़ी जवानी में ही बुढ़ाने लगी है।
दोस्त! हफ्ते में नहीं तो महीने में कम से कम एक दिन तो निकालें खुद से मिलने के लिए, वरना इस भीड़ में गुम जाने का खतरा बना हुआ है।
जिंदगी नूर है, मगर जीये जाने का दस्तूर है।

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